भाग-1 : संघ एवं उसका राज्य
क्षेत्र - अनुच्छेद
1 से
4
भाग-2 : नागरिकता
- अनुच्छेद
5 से
11
भाग-3 : मौलिक
अधिकार -अनुच्छेद 12 से
35
भाग-4 : नीति-निर्देशक
तत्व - अनुच्छेद
36 से
51
भाग-4 : (क)
मूल कर्तव्य - अनुच्छेद
51 (क)
भाग-5 : संघ
- अनुच्छेद
52 से
151
भाग-6 : राज्य
- अनुच्छेद
152 से
237
भाग-8 : संघ
राज्य क्षेत्र -अनुच्छेद 239 से
242
भाग-11 : संघ
और राज्यों के बीच संबंध - अनुच्छेद
245 से
263
भाग-14 : संघ
एवं राज्यों के अधीन सेवाएँ - अनुच्छेद 308 से 323
भाग-15 : निर्वाचन - अनुच्छेद
324 से
329
भाग-17 : राजभाषा
- अनुच्छेद
343 से
351
भाग-18 : आपात
उपबंध - अनुच्छेद
352 से
360
भाग-20 : संविधान
संशोधन - अनुच्छेद
368
भारतीय
नागरिकता (भाग-2, अनुच्छेद 5 से 11) :
* भारत
में एकल नागरिकता का प्रावधान है।
* भारतीय
नागरिकता अधिनियम, 1955 ई०
के अनुसार निम्न में
से किसी
एक आधार पर। नागरिकता
प्राप्त की जा सकती है .
1.जन्म से :
प्रत्येक व्यक्ति जिसका जन्म संविधान लागू होने अर्थात् 26 जनवरी,
1950 ई० को या
उसके पश्चात् भारत में हुआ हो, वह जन्म से भारत का नागरिक होगा। अपवाद-राजनयिको के बच्चे, विदेशियों के बच्चे।
2.वंश परम्परा द्वारा नागरिकता :
भारत के बाहर अन्य देश में 26 जनवरी, 1950 ई० के पश्चात् जन्म लेनेवाला व्यक्ति भारत का नागरिक माना जायेगा, यदि उसके जन्म के समय उसके माता-पिता में से कोई भारत का नागरिक हो ।
3. देशीयकरण द्वारा नागरिकता : भारत
सरकार से देशीयकरण का प्रमाण पत्र प्राप्त कर भारत की नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।
4. पंजीकरण द्वारा नागरिकता : निम्नलिखित
वर्गों में आने वाले लोग पंजीकरण के द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं
(i) वे
व्यक्ति जो पंजीकरण प्रार्थना पत्र देने की तिथि से छह माह पूर्व से भारत में रह
रहे हों।
(ii) वे
भारतीय, जो
अविभाज्य भारत से बाहर किसी देश में निवास
कर रहे हों।
(iii) वे
स्त्रियाँ, जो
भारतीयों से विवाह कर चुकी हैं या भविष्य
में विवाह
करेंगी।
(iv) भारतीय
नागरिकों के नाबालिग बच्चे।
(v) राष्ट्रमंडलीय
देशों के नागरिक, जो
भारत में रहते हों या भारत सरकार की नौकरी कर रहे हों। आवेदन पत्र
देकर भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं।
5. भूमि विस्तार द्वारा : यदि किसी नये भू भाग
को भारत में शामिल किया जाता है, तो उस क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को स्वतः भारत की नागरिकता प्राप्त हो जाती
है।
भारतीय
नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 : इस अधिनियम के आधार पर भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1955 में निम्न संशोधन किये गये हैं ..
1.
अब भारत में जनमे केवल
उस व्यक्ति को ही नागरिकता प्रदान की जायेगी,
जिसके माता पिता में से एक भारत का नागरिक हो ।
2.
जो व्यक्ति पंजीकरण के
माध्यम से भारतीय नागरिकता प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अब भारत में कम-से-कम
पाँच वर्षों तक निवास करना होगा पहले यह अवधि छह माह थी।
3.
देशीयकरण द्वारा
नागरिकता तभी प्रदान की जायेगी, जबकि संबंधित व्यक्ति कम से कम 10 वर्षों तक भारत में रह चुका हो पहले यह अवधि 5 वर्ष थी। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 1986 जम्मू-कश्मीर व असम सहित भारत के सभी राज्यों
पर लागू होगा।
भारतीय
नागरिकता का अन्त : भारतीय नागरिकता का अन्त निम्न प्रकार से हो सकता
है--
(i) नागरिकता का परित्याग
करने से ।
(ii) किसी
अन्य देश की नागरिकता स्वीकार कर लेने
पर।
(iii) सरकार द्वारा नागरिकता छीनने पर।
(i) राज्य
के अधीन नियोजन के संबंध में।
(ii) राज्य
में अचल सम्पत्ति के अर्जन के संबंध में ।
(iii) राज्य
में स्थायी रूप से बस जाने के संबंध में।
(IV) छात्रवृत्तियाँ
अथवा इसी प्रकार की सहायता, जो
राज्य सरकार प्रदान करे ।
मौलिक अधिकार :
* इसे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया
है।
* इसका वर्णन संविधान के भाग-3 में (अनुच्छेद 12
से अनुच्छेद 35) है। संविधान के भाग-3
को भारत का अधिकार पत्र (Magnacarta) कहा
जाता है। इसे मूल अधिकारों का जन्मदाता
भी कहा जाता है
* मौलिक
अधिकारों में संशोधन हो सकता है एवं राष्ट्रीय आपात के दौरान (अनुच्छेद 352) जीवन
एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छोड़कर अन्य मौलिक अधिकारों को स्थगित किया
जा सकता है।
* मूल
संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, लेकिन
44वें
संविधान संशोधन (1978 ई०)
के द्वारा सम्पत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31
एवं 19क)
को मौलिक अधिकार की सूची से हटाकर इसे संविधान के अनुच्छेद 300 (a) के
अन्तर्गत
कानूनी
अधिकार के रूप में रखा गया है।
नोट : 1931
ई० में कराची अधिवेशन (अध्यक्ष सरदार वल्लभभाई पटेल)
में कांग्रेस ने घोषणा-पत्र में मूल अधिकारों की मांग की। मूल अधिकारों का प्रारूप
जवाहरलाल नेहरू ने बनाया था।
मूल
अधिकार :
1. समता
या समानता का अधिकार
(अनु० 14 से 18)
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनु० 19 से
22)
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु० 23 से 24)
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनु० 25 से 28)
5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी -
अधिकार (अनु० 29 से
30)
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनु० 32)
समता या समानता का अधिकार :
अनुच्छेद 14 : विधि
के समक्ष समता : इसका अर्थ यह है कि राज्य सभी व्यक्तियों के लिए
एकसमान कानून बनायेगा तथा उन पर एकसमान लागू करेगा।
अनुच्छेद 15
: धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध : राज्य के द्वारा धर्म,
मूलवंश,
जाति,
लिंग एवं जन्म स्थान आदि के आधार पर नागरिकों
के प्रति जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जायेगा |
अनुच्छेद 16
: लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता : राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित
विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी। अपवाद-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं
पिछड़ा वर्ग
अनुच्छेद 17
: अस्पृश्यता का अन्त : अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया
गया है।
अनुच्छेद 18
: उपाधियों का अन्त :
सेना या विधा संबंधी सम्मान के सिवाए अन्य कोई भी उपाधि राज्य द्वारा प्रदान नहीं
की जायेगी भारत का कोई नागरिक किसी अन्य देश से बिना राष्ट्रपति की आज्ञा
के कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है।
नोट : भारत सरकार द्वारा भारत रत्न,
पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्श्री एवं सेना
द्वारा परमवीर चक्र
महावीर चक्र, वीर
चक्र आदि पुरस्कार अनुच्छेद-18 के
तहत ही दिये जाते हैं।
स्वतंत्रता
का अधिकार :
अनुच्छेद-१९
मूल विधान में सात तरह की स्वतंत्रता
का उलेख था अब सिर्फ छह हे
|
19 (अ) बोलने की
स्वतंत्रता ।
19 (b) शांतिपूर्वक
बिना हथियारों के एकत्रित होने और सभा
करने की स्वतंत्रता ।
19 (c) संघ बनाने
की स्वतंत्रता ।
19 (d) देश
के किसी भी क्षेत्र में आवागमन की स्वतंत्रता ।
19 (e) देश
के किसी भी क्षेत्र में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता।
19 (f) सम्पत्ति
का अधिकार ।
19 (g) कोई
भी व्यापार एवं जीविका चलाने की स्वतंत्रता ।
(अपवाद : जमू काश्मीर )
(44वाँ
संविधान संशोधन 1978 के द्वारा हटा दिया गया )
नोट : प्रेस की स्वतंत्रता का वर्णन अनुच्छेद-19 (a) में ही है।
अनुच्छेद 20
: अपराधों के लिए दोष-सिद्धि के संबंध में संरक्षण : इसके तहत तीन प्रकार की स्वतंत्रता का वर्णन है
(i) किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए सिर्फ एक बार सजा मिलेगी।
(ii) अपराध करने के समय जो कानून है उसी के तहत सजा मिलेगी न कि
पहले और बाद में बनने वाले कानून के तहत ।
(iii) किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध न्यायालय में गवाही देने
के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 21: प्राण एवं
दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण :
किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और
वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नही किया जा सकता है।
अनुच्छेद 21
(क) : राज्य 6 से 14 वर्ष
के आयु के समस्त बच्चों को ऐसे ढंग से जैसा कि राज्य, विधि द्वारा अवधारित
करें, निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करेगा। (86वां
संशोधन-2002 के द्वारा)
अनुच्छेद 22: कुछ दशाओं में
गिरफ्तारी और निरोध में संरक्षण : अगर किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया गया हो,
तो उसे तीन प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान
की गई है..
(1) हिरासत में लेने का कारण बताना होगा
(ii) 24 घंटे के अन्दर (आने जाने के समय को छोड़कर) उसे दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया जायेगा.
(iii) उसे
अपने पसंद के वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा।
निवारक निरोध :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड-3, 4, 5 तथा 6 में तत्संबंधी प्रावधानों का उल्लेख है। निवारक निरोध कानून के
अन्तर्गत किसी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व ही गिरफ्तार किया जाता है। निवारक
निरोध का उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए दण्ड देना नहीं, वरन उसे अपराध करने
से रोकना है। वस्तुतः यह निवारक निरोध राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाये
रखने या भारत की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकता है। जब किसी व्यक्ति को निवारक
निरोध की किसी विधि के अधीन गिरफ्तार किया जाता है,
तब …
(i) सरकार ऐसे व्यक्ति को केवल 3
महीने तक अभिरक्षा में निरुद्ध कर सकती
है। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को तीन माह से अधिक समय के लिए निरुद्ध करना होता है, तो इसके लिए सलाहकार
बोर्ड का प्रतिवेदन प्राप्त करना पड़ता है।
(ii) इस
प्रकार निरुद्ध व्यक्ति को यथाशीघ्र निरोध के आधार पर सूचित किये जायेंगे, किन्तु जिन तथ्यों को निरस्त करना लोकहित के विरुद्ध
समझा जायेगा उन्हें प्रकट करना आवश्यक नहीं है।
(iii) निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के
लिए शीघ्रातिशीघ्र अवसर दिया जाना चाहिए।
निवारक निरोध से संबंधित अब तक बनायी गयी विधियाँ :
1. निवारक निरोध अधिनियम, 1950: भारत की संसद ने 26 फरवरी, 1950 को पहला निवारक निरोध अधिनियम पारित किया था। इसका उद्देश्य राष्ट्र विरोधी तत्वों को भारत की प्रतिरक्षा के प्रतिकूल कार्य से रोकना था। इसे 1 अप्रैल, 1951 को समाप्त हो जाना। था, किन्तु समय-समय पर इसका जीवनकाल बढ़ाया जाता रहा। अंततः यह 31 दिसम्बर, 1971 को समाप्त हुआ।
2.आन्तरिक
सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971 (MISA): 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) इसके प्रतिकूल था और इस
कारण अप्रैल, 1979 ई० में यह समाप्त हो गया।
3.विदेशी मुद्रा संरक्षण व तस्करी निरोध अधिनियम, 1974: पहले इसमें तस्कारों के लिए नजरबंदी की अवधि 1 वर्ष थी, जिसे 13 जुलाई, 1984 ई०
को एक अध्यादेश के द्वारा बढ़ाकर 2
वर्ष कर दिया गया है।
4. राष्ट्रीय
सुरक्षा कानून 1980 : जम्मू-कश्मीर के
अतिरिक्त अन्य सभी राज्यों में लागू किया गया।
5.आतंकवादी
एवं विध्वंसकारी गतिविधियाँ निरोधक कानून (टाडा): निवारक
निरोध व्यवस्था के अन्तर्गत अब तक जो कानून बने उनमें यह सबसे अधिक
प्रभावी और सर्वाधिक कठोर
कानून था। 23 मई, 1995 ई० को इसे समाप्त कर दिया गया। |
6.पोटो
(Prevention of Terrorism Ordinance,
2001): इसे
25 अक्टूबर, 2001 ई० को लागू किया गया। ‘पोटो' टाडा का ही एक रूप
है। इसके अन्तर्गत कुल 23 आतंकवादी गुटों को प्रतिबन्धित किया गया है। आतंकवादी और
आतंकवादियों से संबंधित सूचना को छिपाने वालों को भी दंडित करने का प्रावधान किया
गया है। पुलिस शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, किन्तु बिना
आरोप-पुत्र के तीन माह से अधिक हिरासत में नहीं रख सकती । पोटा के अन्तर्गत
गिरफ्तार व्यक्ति हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है, लेकिन यह अपील भी
गिरफ्तारी के तीन माह बाद ही हो सकती है। पोटो 28
मार्च,
2002 को अधिनियम बनने के बाद पोटा (Prevention of TerrorisIn Act) हो गया। 21 सितम्बर, 2004 को
इसको अध्यादेश के द्वारा समाप्त कर दिया गया। 3.
शोषण के विरुद्ध अधिकार ।
अनुच्छेद
23: मानव के दुव्र्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेध : इसके द्वारा किसी व्यक्ति की खरीद-बिक्री, बेगारी तथा इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया हुआ
श्रम निषिद्ध ठहराया गया है, जिसका
उल्लंघन विधि के अनुसार दंडनीय अपराध है
नोट
: जरूरत
पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
अनुच्छेद 24:
बालकों के नियोजन का प्रतिषेध : 14 वर्ष से कम आयु वाले
किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा
सकता है।
4. धार्मिक
स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 25: अंतःकरण
की और धर्म के अबाध रूप से मानने,
आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता : कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है और उसका
प्रचार-प्रसार कर सकता है।
अनुच्छेद 26:
धार्मिक कार्यों के प्रबंध की
स्वतंत्रता : व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना व पोषण करने, विधि-सम्मत सम्पत्ति
के अर्जन, स्वामित्व व प्रशासन का अधिकार है।
अनुच्छेद 27
: राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने
के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय की उन्नति या
पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गई है।
अनुच्छेद 28
: राज्य विधि से पूर्णतः पोषित
किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी। ऐसे शिक्षण संस्थान
अपने विद्यार्थियों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने या किसी धर्मोपदेश को
बलात् सुनने हेतु बाध्य नहीं कर सकते।
5. संस्कृति
एवं शिक्षा संबंधी अधिकार
अनुच्छेद 29:
अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण
: कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को
सुरक्षित रख सकता है और केवल भाषा,
जाति,
धर्म और संस्कृति के आधार पर उसे किसी
भी सरकारी शैक्षिक संस्था में प्रवेश से नहीं रोका जायेगा।
अनुच्छेद
३०: शिक्षा संस्थाओ की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंक्यक वर्गों का अधिकार : कोई भी अल्पसंक्यक वर्ग अपनी पसंद की शैक्षणिक
संस्था चला
सकता है और सरकार उस अनुदान देने में कीसी भी तरह की भेदभाव नहीं करेगी।
६.संविधानिक उपारो का अधिकार
संविधान
पचारों के अधिकार' को
डॉ० भीमराव आंम्बेडकर ने
संविधान की आत्मा कहा है।
अनुच्छेद
३२ :
इसके अन्तर्गत मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराने के
लिए समुचित कारवाईयो द्वारा उचतम न्यायालय
में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को पांच तर के रिट (writ) निकालने
की शक्ति प्रदान की गयी है, जो
निम्न है
(i) बंदी प्रत्यक्षीकरण (hebes corpus)
(ii)परमादेश (mandamus)
(iii)प्रतिषेध लेख (prohibition)
(iv)उत्प्रेषण
(v)अधिकार पृच्छालेख
(i) बंदी प्रत्यक्षीकरण : यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया
है। इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण करनेवाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बंदी
बनाये गये व्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अन्दर उपस्थित करे, जिससे न्यायालय बंदी बनाये जाने के कारणों पर विचार
कर सके।
(ii) परमादेश : परमादेश
का लेख उस समय जारी किया जाता है, जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता
है। इस प्रकार के आज्ञापत्र के आधार पर पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का
आदेश जारी किया जाता है।
(iii) प्रतिषेध लेख: यह आज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों
द्वारा निम्न न्यायालयों तथा अन्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुए आदेश दिया
जाता है कि इस मामले में अपने यहाँ कारवाई
न करें, क्योकि
यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
(iv) उप्रेषण : इसके द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को यह निर्देश दिया
जाता है कि वे अपने पास लम्बित मुकदमों के न्याय निर्णयन के लिए उसे वरिष्ठ
न्यायालय को भेजे।
(५) अधिकार-पृच्छा लेख
: जब
कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से
अधिकार नहीं है, तो
न्यायालय अधिकार-पृच्छा के आदेश के द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस
अधिकार से कार्य कर रहा है और जब तक वह इस बात का संतोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता है।
मौलिक
अधिकार में संशोधन
1. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967 ई०) : के
निर्णय से पूर्व दिये गये निर्णयों में यह निर्धारित किया गया था कि
संविधान के किसी भी भाग में संशोधन किया जा सकता है,
जिसमें अनुच्छेद 368 एवं मूल अधिकार को
शामिल किया गया था।
2 .सवोच्च
न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्यवाद
(1967 ई०) :
के निर्णय में अनुच्छेद 308 में निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से मूल अधिकारों में संशोधन
पर रोक लगा दी। अर्थात्
संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। |
3. 24वें संविधान संशोधन (1971 ई०) :
द्वारा अनुच्छेद 13 और
368 में
संशोधन किया गया तथा यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 368 में दी गयी प्रक्रिया द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन
किया जा सकता है। |
4.केशवानन्द भारती बनाम केरल
राज्यवाद : के
निर्णय में इस प्रकार के संशोधन को विधि मान्यता प्रदान की गयी अर्थात् गोलकनाथ बनाम
पंजाब राज्य के निर्णय को निरस्त कर दिया गया।
5.42वें संविधान संशोधन (1976 ई०) :
द्वारा अनुच्छेद 368 में
खंड 4 और
5 जोड़े
गये तथा यह व्यवस्था की गयी कि इस प्रकार किये गये संशोधन को किसी न्यायालय में
प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।
6.मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980 ई०) :
के निर्णय के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि संविधान के आधारभूत लक्षणों की
रक्षा करने का अधिकार न्यायालय को है और न्यायालय इस आधार पर किसी भी संशोधन का
पुनरावलोकन कर सकता है। इसके द्वारा 42वें
संविधान संशोधन द्वारा की गई व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया।
राज्य
के नीति निर्देशक सिद्धान्त का वर्णन संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 36 से
51 तक किया गया है। इसकी
प्रेरणा आयरलैंड के संविधान से मिली है।
इसे न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता यानी इसे वैधानिक
शक्ति प्राप्त नहीं है।
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्त निम्न हैं :
अनुच्छेद 38 : राज्य
लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनायेगा, जिससे नागरिक को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय मिलेगा। |
अनुच्छेद 39 (क) : समान
न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता, समान
कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था इसी में है।
अनुच्छेद 39 (ख) : सार्वजनिक
धन का स्वामित्व तथा नियंत्रण इस प्रकार करना ताकि सार्वजनिक हित का सर्वोत्तम
साधन हो सके।
अनुच्छेद 39 (ग) : धन
का समान वितरण अनुच्छेद
अनुच्छेद
40 : ग्राम पंचायतों का संगठन ।
अनुच्छेद
41 : कुछ दशाओं में काम,
शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार ।
अनुच्छेद
42 : काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति
सहायता का उपबन्ध ।
अनुच्छेद
43 : कर्मकारों के लिए निर्वाचन मजदूरी एवं कुटीर उद्योग
को प्रोत्साहन ।
अनुच्छेद
44 : नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता ।
अनुच्छेद
46 : अनुसूचित जातियों,
अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा
और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि ।
अनुच्छेद 47
: पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का
राज्य का कर्तव्य ।
अनुच्छेद
48 : कृषि एवं पशुपालन का संगठन ।
अनुच्छेद
48 (क)
: पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन एवं वन्य
जीवों की रक्षा।
अनुच्छेद
49
: राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण ।
अनुच्छेद
50
: कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का पृथक्करण ।
अनुच्छेद
51: अन्तरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि ।
उपर्युक्त
अनुच्छेद के अतिरिक्त कुछ ऐसे अनुच्छेद भी हैं, जो
राज्य के लिए निदेशक सिद्धान्त के
रूप में कार्य करते हैं; जैसे
अनुच्छेद
350 (क) : प्राथमिक
स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा देना।
अनुच्छेद
351: हिन्दी को प्रोत्साहन देना ।
नोट : राज्य
का नीति निर्देशक तत्व एक ऐसा चेक है जो बैंक की सुविधानुसार अदा की जायेगी यह कथन
K.T. शाह
का है।
मौलिक
अधिकार एवं नीति-निर्देशक सिद्धान्त में अन्तर :
मौलिक अधिकार :
1. यह सं० रा० अमेरिका के संविधान से लिया गया है।
2. इसका वर्णन संविधान के भाग-3 में किया गया है।
3. इसे लागू कराने के
लिए न्यायालय की शरण ले सकते है।
4. यह व्यक्ति के अधिकार
के लिए है।
5. मौलिक अधिकार के पछि कानुनी मान्यता हे
6. यह सरकार के महत्व को घटाता है
7. यह अधिकार नागरिकों को स्वतः प्राप्त हो जाता
है।
नीति
निर्देशक सिद्धांत :
1.यह आयरलैंड के संविधान से लिया गया है
2. इसका वर्णन संविधान
के भाग-4 में किया गया है
3 इसे लागू कराने के
लिए न्यायालय नहीं जाया जा सकता है।
4.यह समाज की भलाई के
लिए है।
5. इसके पीछे राजनीतिक मान्यता है
6. यह सरकार के अधिकारों को बढ़ाता है।
7. यह राज्य सरकार के द्वारा लागू करने के बाद ही
नागरिक
को प्राप्त होता है।
मौलिक
कर्तव्य :
> सरदार स्वर्ण सिंह समिति की
अनुशंसा पर संविधान के 42वें
संशोधन (1976 ई०)
के द्वारा मौलिक कर्तव्य को संविधान में जोड़ा गया । इसे रूस के संविधान
से लिया गया है।
> इसे
भाग 4(क) में अनुच्छेद 51
(क) के तहत रखा गया।
मौलिक कर्तव्य की संख्या 11 है, जो
इस प्रकार है: |
1. प्रत्येक नागरिक का
यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शा संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।
2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को
प्रेरित करनेवाले उच्च आदर्शों को हृदय
में संजोए
रखे और उनका पालन करे ।
3. भारत की प्रभुता, एकता
और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे ।
4. देश की रक्षा करे ।
5.भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की
भावना का निर्माण करे।
6.हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का
महत्व समझे और उसका परीक्षण करे ।
7. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करे ।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का
विकास करे।
9. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे।
10.व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों
में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास
करे.
11.माता-पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष
के बच्चों हेतु प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना (86वाँ संशोधन).